6 काल महिमा

 परिचय:-

भगवान् परमात्मा परब्रह्मका अद्‌भुत प्रभावसम्पन्न तथा जागतिक पदार्थोंके नानाविध वैचित्र्यका हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नामसे विख्यात है⁠। 

उदाहरण:- 

प्रकृति और पुरुष इसीके रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है⁠। 

नाना प्रकारके कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है ⁠।⁠।⁠३६-३७⁠।⁠। 

कार्य:- 

जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियोंमें अनुप्रविष्ट होकर भूतोंद्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत्‌का शासन करनेवाले ब्रह्मादिका भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञोंका फल देनेवाला विष्णु है ⁠।⁠।⁠३८⁠।⁠। 

शत्रु मित्र:-

इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है⁠। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान्‌को भूलकर भोगरूप प्रमादमें पड़े हुए प्राणियोंपर आक्रमण करके उनका संहार करता है ⁠।⁠।⁠३९⁠।⁠। 

प्रभाव:-

इसीके भयसे वायु चलता है, इसीके भयसे सूर्य तपता है, इसीके भयसे इन्द्र वर्षा करते हैं और इसीके भयसे तारे चमकते हैं ⁠।⁠।⁠४०⁠।⁠।

इसीसे भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती हैं ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 

इसीके डरसे नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता⁠। इसीके भयसे अग्नि प्रज्वलित होती है और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠। 

इसीके शासनसे यह आकाश जीवित प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है ⁠।⁠।⁠४३⁠।⁠। 

इस कालके ही भयसे सत्त्वादि गुणोंके नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्योंमें युगक्रमसे तत्पर रहते हैं ⁠।⁠।⁠४४⁠।⁠।

आदि अन्त:-

यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरोंका आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है⁠। यह पितासे पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत्‌की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है ⁠।⁠।⁠४५⁠।⁠।


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