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2.भक्तियोग की महिमा

कपिल देव जी ने माता देवहुती जी को कहा कि- इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है।विषयों में आसक्त होने पर वह बंधन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है। Every learned man knows very well that attachment for the material is the greatest entanglement of the spirit soul. But that same attachment, when applied to the self-realized devotees, opens the door of liberation शौनकजीने पूछा—सूतजी! तत्त्वोंकी संख्या करनेवाले भगवान् कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगोंको आत्मज्ञानका उपदेश करनेके लिये अपनी मायासे उत्पन्न हुए थे ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। मैंने भगवान्‌के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिलजीकी कीर्तिको सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमायाद्वारा भक्तोंकी इच्छाके अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करने योग्य हैं; अतः आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुननेमें बड़ी श्रद्धा है ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। सूतजी कहते हैं—मुने! आपकी ही भाँति जब विदुरने भी यह आत्मज

1.कपिल जन्म

 6. आर्द्रा नक्षत्र,3/24से4/3 1कपिल जन्म,2 देवहूति को भक्ति योग, 3 मअह्न आदि तत्व, 4प्रकृति पुरूष (सजीव, निर्जीव) विवेक से मोक्ष, 5योगविधि, 6काल की महिमा, 7अधोगति, 8गति, 9उच्च गति, 10तत्वज्ञान (मोक्ष),(4)11मनु कन्याए,12दक्षप्रसूति,13 यज्ञ, श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—उत्तम गुणोंसे सुशोभित मनुकुमारी देवहूतिने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तबकृपालु कर्दम मुनिको भगवान् विष्णुके कथनका स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। कर्दमजी बोले—दोषरहित राजकुमारी! तुम अपने विषयमें इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भमें अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। प्रिये! तुमने अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन किया है, अतः तुम्हारा कल्याण होगा⁠। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान्‌का भजन करो ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहंकारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! प्रजापति कर्दमके आदेशमें गौरव-बुद्धि होनेसे देवहूतिने उसपर पूर्ण विश्वास किया

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6 काल महिमा

  परिचय :- भगवान् परमात्मा परब्रह्मका अद्‌भुत प्रभावसम्पन्न तथा जागतिक पदार्थोंके नानाविध वैचित्र्यका हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नामसे विख्यात है⁠।  उदाहरण :-  प्रकृति और पुरुष इसीके रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है⁠।  नाना प्रकारके कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है ⁠।⁠।⁠३६-३७⁠।⁠।  कार्य :-  जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियोंमें अनुप्रविष्ट होकर भूतोंद्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत्‌का शासन करनेवाले ब्रह्मादिका भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञोंका फल देनेवाला विष्णु है ⁠।⁠।⁠३८⁠।⁠।  शत्रु मित्र :- इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है⁠। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान्‌को भूलकर भोगरूप प्रमादमें पड़े हुए प्राणियोंपर आक्रमण करके उनका संहार करता है ⁠।⁠।⁠३९⁠।⁠।  प्रभाव :- इसीके भयसे वायु चलता है, इसीके भयसे सूर्य तपता है, इसीके भयसे इन्द्र वर्षा करते हैं और इसीके भयसे तारे चमकते हैं ⁠।⁠।⁠४०⁠।⁠। इसीसे भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धा

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